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आ द॑धि॒क्राः शव॑सा॒ पञ्च॑ कृ॒ष्टीः सूर्य॑इव॒ ज्योति॑षा॒पस्त॑तान। स॒ह॒स्र॒साः श॑त॒सा वा॒ज्यर्वा॑ पृ॒णक्तु॒ मध्वा॒ समि॒मा वचां॑सि ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā dadhikrāḥ śavasā pañca kṛṣṭīḥ sūrya iva jyotiṣāpas tatāna | sahasrasāḥ śatasā vājy arvā pṛṇaktu madhvā sam imā vacāṁsi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। द॒धि॒ऽक्राः। शव॑सा। पञ्च॑। कृ॒ष्टीः। सूर्यः॑ऽइव। ज्योति॑षा। अ॒पः। त॒ता॒न॒। स॒ह॒स्र॒ऽसाः। श॒त॒ऽसाः। वा॒जी। अर्वा॑। पृ॒णक्तु॑। मध्वा॑। सम्। इ॒मा। वचां॑सि ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:38» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो राजा (शवसा) बल से (सूर्य्यइव) सूर्य्य के सदृश (दधिक्राः) धारण करनेवालों से प्राप्त होनेवाला (पञ्च) पाँच (कृष्टीः) मनुष्यों को (ज्योतिषा) प्रकाश से सूर्य्य जैसे (अपः) जलों को वैसे (आ, ततान) विस्तृत करता है (सहस्रसाः) हजारों का विभाग करनेवाला (शतसाः) और सैकड़ों का विभागकर्त्ता वर्त्तमान (अर्वा) शीघ्र मार्गों को जानेवाला (वाजी) वेगवान् (मध्वा) सहत शहद के साथ (इमा) इन (वचांसि) वचनों का (सम्, पृणक्तु) सम्बन्ध करे, वही राज्य करने के योग्य होता है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो सूर्य्य के प्रकाश के सदृश न्याय से पाँच प्रकार की प्रजाओं का पालन करता है, वह असंख्य आनन्द को प्राप्त होता है ॥१०॥ इस सूक्त में राजा के गुणधर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥१०॥ यह अड़तालीसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

यो राजा शवसा सूर्य्यइव दधिक्राः पञ्च कृष्टी ज्योतिषा सूर्य्योऽप इवाऽऽततान सहस्रसाः शतसा वर्त्तमानोऽर्वा वाजी मध्वेमा वचांसि सम्पृणक्तु स एव राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (दधिक्राः) यो दधिभिर्धर्तृभिः क्रम्यते गम्यते सः (शवसा) बलेन (पञ्च) (कृष्टीः) मनुष्यान् (सूर्य्यइव) सवितेव (ज्योतिषा) प्रकाशेन (अपः) जलानि (ततान) विस्तृणोति (सहस्रसाः) यः सहस्राणि सनति विभजति सः (शतसाः) यः शतानि सनति सम्भजति (वाजी) वेगवान् (अर्वा) यः सद्यो मार्गान् गच्छति (पृणक्तु) स बध्नातु (मध्वा) क्षौद्रेण (सम्) (इमा) इमानि (वचांसि) वचनानि ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यः सूर्य्यप्रकाश इव न्यायेन पञ्चविधाः प्रजाः पाति सोऽसङ्ख्यमानन्दमाप्नोति ॥१०॥ अत्र राजधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥१०॥ इत्यष्टत्रिंशत्तमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो सूर्याच्या प्रकाशाप्रमाणे न्यायाने पाच प्रकारे प्रजेचे पालन करतो तो असीम आनंद प्राप्त करतो. ॥ १० ॥